रिलीज डेट: 27 जून 2025
डायरेक्टर: विशाल फुरिया
स्टारकास्ट: काजोल, रोनित रॉय, इंद्रनील सेनगुप्ता, खेरिन शर्मा
रेटिंग: ⭐️⭐️⭐️ (3/5)
बॉलीवुड की चहेती एक्टर काजोल इस बार एक बिल्कुल अलग अंदाज़ में स्क्रीन पर वापसी करती हैं। फिल्म का नाम ही है ‘मां’, और जैसा कि नाम से लगता है, ये फिल्म एक ऐसी महिला की कहानी है, जो अपनी बेटी को बचाने के लिए हर हद पार कर जाती है — चाहे सामने कोई इंसान हो या फिर राक्षस।
निर्देशक विशाल फुरिया, जो इससे पहले 'छोरी' और 'छोरी 2' जैसी हॉरर फिल्में बना चुके हैं, उन्होंने इस बार भी एक डरावनी कहानी लेकर आए हैं, लेकिन इसमें इमोशन्स की परत कुछ ज्यादा डाली है और डर का डोज थोड़ा हल्का है।
फिल्म कहानी क्या है?
कहानी शुरू होती है कोलकाता के एक काल्पनिक गांव ‘चंदरपुर’ से, जहां देवी काली की पूजा हो रही होती है और उसी दौरान एक मां जुड़वा बच्चों को जन्म देती है। पर इस गांव में एक डरावनी परंपरा है — यहां जब भी किसी लड़की को पहली बार पीरियड्स आते हैं, उसे ‘दोइत्तो’ नाम के एक राक्षस को बलि चढ़ा दिया जाता है।
इस अंधविश्वास से तंग आकर बच्ची का जुड़वा भाई शुभांकर (इंद्रनील सेनगुप्ता) गांव छोड़कर अपनी पत्नी अंबिका (काजोल) और बेटी श्वेता (खेरिन शर्मा) के साथ शहर में बस जाता है। मगर किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर होता है — शुभांकर की रहस्यमयी मौत हो जाती है और अंबिका को मजबूरी में अपनी बेटी के साथ चंदरपुर लौटना पड़ता है।
यहां से शुरू होता है असली खेल — गांव की कई लड़कियां गायब हो रही हैं, दोइत्तो उन्हें ले जाता है और फिर लौटाता है, लेकिन उनकी याद्दाश्त मिट चुकी होती है। जब दोइत्तो की नजर श्वेता पर पड़ती है, तो मां अंबिका बेटी को बचाने के लिए राक्षसी ताकतों से भी भिड़ जाती है।
कहानी में क्या खास है?
फिल्म की कहानी सामाजिक मुद्दों को जोड़ने की एक अच्छी कोशिश करती है। रक्तबीज और देवी काली की कथा का जिक्र आता है, और इसी से दोइत्तो के जन्म की तैयार होती है। साथ ही, ‘बेटी बचाओ’ जैसे सामाजिक संदेश को भी कहानी में दिखाया गया है।
पर यहां दिक्कत आती है स्क्रीनप्ले में। फिल्म का पहला आधा हिस्सा बहुत ही स्लो है। कहानी का प्लॉट तो अच्छा है लेकिन उसे पकड़ने में समय लगता है। डरावने सीन हैं, पर वो ज़्यादा असरदार नहीं लगते। सेकेंड हाफ में फिल्म थोड़ी रफ्तार पकड़ती है, लेकिन क्लाइमैक्स खतरनाक हो जाता है।
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स्टार कास्ट और उनका अभिनय
काजोल ने एक प्रोटेक्टिव मां के रोल में अच्छा काम किया है। वो फिल्म की जान हैं और हर फ्रेम में उनका दर्द, डर और उनकी हिम्मत साफ नज़र आती है। अंबिका के किरदार में वो एक वर्किंग महिला भी हैं और एक माँ भी जो अपने बच्चे के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
लेकिन असली सरप्राइज रोनित रॉय हैं। शुरुआत में वो गांव के सरपंच जयदेव बने नजर आते हैं, लेकिन बाद में बड़ा ट्विस्ट आता है – वही निकले दोइत्तो यानी राक्षस अमसजा! रोनित का ट्रांसफॉर्मेशन, उनकी डायलॉग डिलीवरी और बॉडी लैंग्वेज – सब शानदार हैं।
खेरिन शर्मा यानी काजोल की बेटी श्वेता के रोल में ठीक-ठाक हैं। कभी-कभी उनके एक्सप्रेशन थोड़े एक जैसे लगते हैं। इंद्रनील सेनगुप्ता और बाकी सह-कलाकार जैसे जतिन गुलाटी और दिब्येंदु भट्टाचार्य ने अपने-अपने हिस्से का काम ईमानदारी से किया है।
म्यूजिक एंड टेक्निशियन
सिनेमैटोग्राफी कमाल की है। गांव की लोकेशन्स, हवेली, जंगल – सब कुछ डरावना और रियल लगता है। कैमरे का काम शानदार है। प्रोडक्शन डिज़ाइन ने माहौल में रहस्य और अंधविश्वास को अच्छे से दिखाया दिया है।
अब बात करें बैकग्राउंड स्कोर और गानों की – तो यहां थोड़ी निराशा मिलती है। गाने याद नहीं रहते। ‘काली शक्ति’ गाना थोड़ा दमदार है लेकिन इसकी कोरियोग्राफी और कॉस्ट्यूम उतना प्रभाव नहीं छोड़ते। बैकग्राउंड स्कोर भी कहीं-कहीं ठीक ठाक लगते हैं।
फिल्म क्या मैसेज देती है?
फिल्म बताती है कि "मां सिर्फ जन्म नहीं देती, जरूरत पड़ने पर रक्षक भी बनती है।" ये सिर्फ एक हॉरर फिल्म नहीं, बल्कि एक समाज पर तमाचा है, जो आज भी बेटियों को बलि चढ़ाने जैसा सोचता है। फिल्म सवाल उठाती है क्या आज भी कुछ जगहों पर हमारी सोच इतनी पुरानी है?
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फिल्म देखें या नहीं?
अगर आप हॉरर फिल्मों के शौकीन हैं और काजोल की एक्टिंग के दीवाने हैं, तो एक बार ये फिल्म जरूर देख सकते हैं। हां, छोटे बच्चों को लेकर थोड़ा सावधान रहिए क्योंकि कुछ सीन डरावने हैं। फिल्म फैमिली के साथ देखी जा सकती
है, खासकर मां-बेटी का इमोशनल कनेक्शन आपको जरूर छू जाएगा।
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